ताज़ा विश्लेषण
राजस्थान की सियासत में ‘गुर्जर आंदोलन’ सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि पटरियों पर ठहरे देश की वह तस्वीर है। जिसने कई सरकारों की नींव हिला दी। यह कहानी आरक्षण की मांग से शुरू होकर सामाजिक अस्मिता और राजनीतिक शक्ति प्रदर्शन तक पहुंची।
इस आंदोलन ने एक पूरे समुदाय को एकजुट किया और विरोध का एक ऐसा तरीका इजाद किया। जिसे नजरअंदाज करना असंभव था। यह विश्लेषण उस संघर्ष की परतों को खोलेगा, जिसने राजस्थान के सामाजिक ताने-बाने को हमेशा के लिए बदल दिया।
संघर्ष की पहली चिंगारी: क्यों उठी आरक्षण की मांग?
इस संघर्ष की जड़ें करीब दो दशक पुरानी हैं। इसकी शुरुआत गुर्जर समुदाय द्वारा खुद को अनुसूचित जनजाति (ST) में शामिल करने की मांग से हुई थी। समुदाय का दावा था कि उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति ST श्रेणी के मानकों को पूरा करती है।
हालांकि, यह मांग सीधे तौर पर मीणा समुदाय के हितों से टकराई, जो पहले से ही ST श्रेणी में थे। इसी टकराव ने गुर्जरों को एक नए रास्ते पर धकेल दिया। जहां से विशेष पिछड़ा वर्ग (SBC) और बाद में अति पिछड़ा वर्ग (MBC) के आरक्षण की लड़ाई शुरू हुई।
कर्नल बैंसला: एक फौजी जिसने आंदोलन को दिशा दी
हर बड़े आंदोलन को एक चेहरे की जरूरत होती है। गुर्जर आंदोलन को यह चेहरा भारतीय सेना के सेवानिवृत्त कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के रूप में मिला। उन्होंने इस विशाल और बिखरे हुए आंदोलन को एक चेहरा और रणनीतिक दिशा दी।
उनकी सैन्य पृष्ठभूमि ने इस आंदोलन को एक संगठित और अनुशासित रूप दिया। ‘चक्का जाम’ और ‘रेल रोको’ जैसे प्रदर्शनों की रणनीति कर्नल बैंसला के नेतृत्व में ही सफल हुई और वे समुदाय के सबसे बड़े नायक बनकर उभरे।
रेलवे ट्रैक ही क्यों बने विरोध का हथियार?
गुर्जर आंदोलनकारियों ने विरोध के लिए जानबूझकर दिल्ली-मुंबई रेलवे कॉरिडोर को चुना। यह केवल एक रेलवे लाइन नहीं, बल्कि भारत की आर्थिक जीवनरेखा है। इसे बाधित करने का मतलब था, देश की धड़कन को रोकना।
यह एक ऐसा दबाव बनाने का तरीका था, जिसे जयपुर से लेकर दिल्ली तक की सरकारें अनदेखा नहीं कर सकती थीं। इसी रणनीति ने आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई, मगर इसकी कीमत 70 से अधिक जिंदगियों के रूप में चुकानी पड़ी।
सियासत और कानून के भंवर में फंसा आरक्षण
आंदोलन के दबाव में राजस्थान की सरकारों ने कई बार गुर्जरों को आरक्षण देने का प्रयास किया। विधानसभा में विधेयक पारित हुए, लेकिन हर बार मामला कानूनी पचड़ों में फंस गया। सबसे बड़ी बाधा सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा थी।
जब भी सरकार ने इस सीमा का उल्लंघन किया, उच्च न्यायालय ने उस कानून को रद्द कर दिया। यह एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया, जिसमें गुर्जर समुदाय की मांगें और सरकारों की राजनीतिक मजबूरियां उलझी रहीं।
MBC आरक्षण: एक अधूरा समाधान?
लंबे संघर्ष और कानूनी लड़ाइयों के बाद, गुर्जरों सहित पांच जातियों के लिए अति पिछड़ा वर्ग (MBC) के तहत 5 प्रतिशत आरक्षण का रास्ता निकाला गया। यह एक बड़ी जीत थी, लेकिन इसे स्थायी बनाने की चुनौती अभी भी बाकी है।
आंदोलन के नेता अब इस आरक्षण को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। इसका उद्देश्य इसे भविष्य की किसी भी न्यायिक समीक्षा से सुरक्षित करना है, ताकि यह मुद्दा हमेशा के लिए हल हो सके।
वर्तमान स्थिति और भविष्य की राह
कर्नल बैंसला के निधन के बाद आंदोलन का नेतृत्व अब एक नई पीढ़ी के हाथ में है। अब प्रदर्शन का तरीका बदल गया है, लेकिन मांगें वही हैं। पटरियों पर आंदोलन भले ही थम गया हो, लेकिन राजनीतिक और कानूनी स्तर पर संघर्ष जारी है।
यह मुद्दा आज भी राजस्थान में एक राख के नीचे दबी चिंगारी की तरह है। यह गुर्जर समुदाय के लिए सिर्फ नौकरियों का सवाल नहीं, बल्कि दशकों के संघर्ष से हासिल पहचान को बनाए रखने की लड़ाई है। जो आने वाले कई सालों तक राजस्थान की राजनीति को प्रभावित करती रहेगी।